Girish Tiwari “Girda” : पहाड़ के चलते फिरते रेडियो थे फक्कड़ गिर्दा

Girish Tiwari “Girda”  गिर्दा ने साहित्य जगत में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। वह संस्कृतिकर्मी थे, उन्होंने हिंदी, कुमाउनी, गढ़वाली में गीत लिखे हैं, जिनमें उत्तराखंड आंदोलन, चिपको आंदोलन, झोड़ा, चांचरी, छपेली व जागर आदि के माध्यम से समाज को परिवर्तित करने पर बल दिया गया है। वे हमेशा समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे थे।लोककवि गिर्दा एक अजीब किस्म के फक्कड़ बाबा कवि थे।

 

गिर्दा ने चोर को घड़ी देकर क्या कहा था ? Girish Tiwari “Girda”

Girish Tiwari “Girda”

लखीमपुर खीरी में जब एक चोर उनकी गठरी चुरा रहा था

तो उन्होंने उसे यह कहकर अपनी घड़ी भी सौप दी थी कि ‘यार, मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है।’ गिर्दा ने आजीविका के लिए लखनऊ में रिक्शा भी चलाया। उनके फक्कड़पन की एक मिसाल यह भी है कि उन्होंने मल्लीताल में नेपाली मजदूरों के साथ रह कर मेहनतकश कुली मजदूरों के दुःख दर्द को नजदीक से देखा था। भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए।



हंसादत्त तिवाड़ी व जीवंती तिवाड़ी के उच्च कुलीन घर में जन्मे गिर्दा

यह फक्कड़पन ही था कि 1977 में वन आन्दोलन को प्रोत्साहित करने के लिए ‘हुड़का’ बजाते हुए सड़क पर आंदोलनकारियों के साथ कूद पड़े। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर लगाकर ‘चलता फिरता रेडियो’ बन जाया करते थे और प्रतिदिन शाम को नैनीताल में तल्लीताल डांठ पर आंदोलन से जुड़े ताजा समाचार सुनाते थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी व विराट प्रकृति का था। कमजोर और पिछड़े तपके की जनभावनाओं को स्वर प्रदान करना गिर्दा की कविताओं का मुख्य उद्देश्य था।

गिर्दा‘ का जन्म 10 सितम्बर, 1945 को अल्मोड़ा जिले के हवालबाग के ज्योली तल्ला स्यूनारा में हुआ था। उनके द्वारा रचित बहुचर्चित  रचनाएँ हैं- ‘जंग किससे लिये’ (हिंदी कविता संकलन), ‘जैंता एक दिन तो आलो’’ (कुमाउनी कविता संग्रह), ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (होली संग्रह), ‘उत्तराखंड काव्य’, ‘सल्लाम वालेकुम’ इत्यादि। एक नाट्यकर्मी के रूप में गिर्दा ने नाट्य संस्था युगमंच के तत्वाधान में ‘नगाड़े खामोश है’ तथा ‘थैक्यू मिस्टर ग्लाड’ का निदेशन भी किया।



अद्भुत रचनाधर्मी और सांस्कृतिक व्यक्तित्व थे गिर्दा


‘गिर्दा’ एक प्रतिबद्ध रचनाधर्मी सांस्कृतिक व्यक्तित्व थे। गीत, कविता, नाटक, लेख, पत्रकारिता, गायन, संगीत, निर्देशन, अभिनय आदि, यानी संस्कृति का कोई आयाम उनसे से छूटा नहीं था। मंच से लेकर फिल्मों तक में लोगों ने ‘गिर्दा’ की क्षमता का लोहा माना। उन्होंने ‘धनुष यज्ञ’ और ‘नगाड़े खामोश हैं’ जैसे कई नाटक लिखे, जिससे उनकी राजनीतिक दृष्टि का भी पता चलता है। ‘गिर्दा’ ने नाटकों में लोक और आधुनिकता के अद्भुत सामंजस्य के साथ अभिनव प्रयोग किये और नाटकों का अपना एक पहाड़ी मुहावरा गढ़ने की कोशिश की।


जीवन भर हिमालय के जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने सारे विश्व को दिखा दिया कि मानवता के अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाला कवि किसी जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त या देश तक सीमित नहीं होता। उनकी अन्तिम यात्रा में ’गिर्दा’ को जिस प्रकार अपार जन-समूह ने अपनी भावभीनी अन्तिम विदाई दी उससे भी पता चलता है कि यह जनकवि किसी एक वर्ग विशेष का नही बल्कि although वह सबका हित चिंतक होता है। उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाला कोई ‘गिर्दा’ जैसा फक्कड़  जनकवि जब याद आता है तो अहमियत का एहसास होता है।

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