देहरादून से अनीता तिवारी की रिपोर्ट –
Kumayuni Ramlila उत्तराखण्ड की पहाड़ी रामलीला तकरीबन 160 साल पुरानी मानी जाती है। हालांकि कुछ सामाजिक इतिहासकार लोक मान्यता को आधार मानते हुए देवप्रयाग की रामलीला को सबसे पुरानी बताते हैं, जिसका मंचन 1843 के आसपास हुआ। संस्कृति के तमाम जानकार लिखित साक्ष्यों के आधार पर 1860 में अल्मोड़ा से शुरू हुई रामलीला को ही पहली पहाड़ी रामलीला मानते हैं, जिसका विस्तार बाद में समय-समय पर नैनीताल, पिथौरागढ़, पौड़ी भीमताल, सतराली, श्रीनगर, टिहरी, काशीपुर व लैंसडाउन सहित गांव-शहरों में होता रहा। इन रामकथाओं में राम और अन्य पात्रों के चरित्र का आंचलिक रूप में चित्रित होना ही इसकी प्रयोगधर्मी विशेषता है।
सभी पात्र गाकर अदा करते हैं संवाद Kumayuni Ramlila

उत्तराखंड के पुराने रामलीला प्रशंसक कहते हैं कि जो एक बात देश के बाकी हिस्सों से इसे अलग करती है वो है इसकी गायिकी का अंदाज। उत्तराखंडी रामलीलाओं में राम से लेकर रावण तक, शूर्पणखा से लेकर शबरी तक को गाकर संवाद करने होते हैं। यही वजह है कि जिन कलाकारों की आवाज अच्छी होती है, अमूमन उन्हें ही चुना जाता है। एक तरह से उत्तराखंडी रामलीलाओं में अभिनय गौण रहता है। दूसरी बात कि इन रामलीलाओं में कलाकारों को बहुत कड़े अनुशासन में रहना होता है। नियमित स्नान, ध्यान, प्याज लहसुन तक का त्याग करना होता है। अल्मोड़ा में तो राम-सीता का किरदार ही 12 – 13 वर्ष के किशोरों से करवाया जाता है। तीसरी बात अहम बात यह है कि इन रामलीलाओं में स्थानीय धुनें बहुत होती हैं। संस्कृत के श्लोक सुनने को मिलते हैं।
1860 में अल्मोड़ा से हुई शुरुआत
उत्तराखंड में रामलीलाओं के मंचन के इतिहास पर कुमायूनी बुजुर्ग बताते है कि यह सिलसिला सन 1860 में अल्मोड़ा से शुरू हुआ था, जहां भवानीदत्त जोशी और देवीदत्त जोशी ने रामलीला का गायिकी के अंदाज में मंचन किया। वहीं से यह मॉडर्न अंदाज आज गढ़वाल, कुमाऊं में फैला। रामलीला को फैलाने में व्यापारी वर्ग का बहुत अहम रोल रहा। अल्मोड़ा की रामलीला के स्टाइल के अलावा दो और स्टाइल प्रचलित हुए। इनमें श्रीनगर की रामलीला का जिक्र जरूरी है जिसे अंबाशायर ने शुरू किया था। उनकी रामलीला में गायिकी का अंदाज अल्मोड़ा के अंदाज से अलग था। श्री राम राय दरबार देहरादून में भी रामलीला बेसिक स्टाइल में मंचित होती थी। देवप्रयाग में भी रामलीला का अलग अंदाज हुआ करता था मगर अब ज्यादातर जगहों पर अल्मोड़ा वाला स्टाइल ही चलता है।
उत्तराखंड की भीमताली शैली की रामलीला नैनीताल, हलद्वानी में बहुत प्रसिद्ध है। इसका मंचन हर कोई नहीं कर सकता क्योंकि इसमें संवाद पूरी तरह गाकर अदा किए जाते हैं। यह गायन भी पूरी तरह शास्त्रीय संगीत पर आधारित होता है। कामधेनु रामलीला में भी आपको यह शैली देखने को मिलती है। मंच के मामले में हो या तकनीक या शैली के मामले में आजकल इस रामलीला की कई विशेषताएं जुड़ गयी हैं।
पहाड़ों से मैदान तक भले ही रामलीलाओं में अभिनय करने वाले मौजूद हैं लेकिन दर्शक कम होते जा रहे हैं। इसकी वजह बताते हुए रामलीला ग्रुप से जुड़े लोग कहते हैं कि ज्यादातर उत्तराखंडी रामलीलाएं खुद को कमर्शल नहीं कर पाईं, जिससे आय के साधन सीमित रहे और रामलीला को कौथिग की तरह बड़े आयोजन का रूप नहीं दिया जा सका। आज भी रामलीला समितियों को पर्ची कटवाने के लिए घर-घर ही जाना होता है। वहीँ पहाड़ों पर नवरात्र का समय ऐसा होता है जब खेती के काम से सब फारिग हो चुके होते हैं। पहले चूंकि मोबाईल , सोशल मीडिया , फिल्म आदि मनोरंजन के साधन कम थे, इसलिए हर कोई रामलीला देखने जाता ही था।
उत्तराखण्ड की पहाड़ी रामलीला तकरीबन 160 साल पुरानी मानी जाती है। हालांकि कुछ सामाजिक इतिहासकार लोक मान्यता को आधार मानते हुए देवप्रयाग की रामलीला को सबसे पुरानी बताते हैं, जिसका मंचन 1843 के आसपास हुआ। संस्कृति के तमाम जानकार लिखित साक्ष्यों के आधार पर 1860 में अल्मोड़ा से शुरू हुई रामलीला को ही पहली पहाड़ी रामलीला मानते हैं, जिसका विस्तार बाद में समय-समय पर नैनीताल, पिथौरागढ़, पौड़ी भीमताल, सतराली, श्रीनगर, टिहरी, काशीपुर व लैंसडाउन सहित गांव-शहरों में होता रहा। उत्तराखण्ड में प्रचलित इस पहाड़ी रामलीला से इतर यदि यहां के लोक में निहित रामकथा की बात की जाए तो उसमें कई नये प्रतिमानों के दर्शन होते हैं। इन रामकथाओं में राम और अन्य पात्रों के चरित्र का आंचलिक रूप में चित्रित होना ही इसकी प्रयोगधर्मी विशेषता है।