Bagori Village Uttarakhand उत्तराखंड में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जो अपनी विशेष मान्यताओं के साथ-साथ परंपराओं के लिए भी विश्व विख्यात है। ऐसी ही एक अनोखी परंपरा बगोरी गांव के ग्रामीणों की भी है। ये लोक उत्सव का आयोजन करते हैं और यहां धार्मिक अनुष्ठान पर बकरे की बलि भी देते हैं, लेकिन गजब की बात यह है कि जब बलि दी जाती है तो किसी तरह का कोई रक्त प्रवाह नहीं होता है। यह अनुष्ठान उत्तरकाशी जिले के हर्षिल घाटी के बगोरी गांव में पांडव नृत्य के दौरान किया जाता है।
उत्तराखंड में त्यागे थे पांडवों नेअस्त्र-शस्त्र Bagori Village Uttarakhand

इस दौरान ग्रामीणों द्वारा सामूहिक रूप से पांडव लीला का आयोजन किया जाता है। इसमें वे पांडवों के पश्वा ढोल की थाप पर नृत्य करते हैं। इसमें मुख्य रूप से अर्जुन, युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव, कृष्ण, द्रौपदी और हनुमान के पश्वा शामिल रहते हैं। हर वर्ष यहां लोक उत्सव के रूप में पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है, जिसका अपना धार्मिक महत्व है। तीन दिनों तक चलने वाली पांडव लीला के समाप्ति पर ग्रामीण पांडव पश्वाओं से आशीर्वाद लेते हैं।
पांडव लीला में प्रतीकात्मक रूप से बलि देने का चलन है। कहा जाता है कि पहले पांडव नृत्य के समाप्ति पर बकरी की बलि ईष्ट देवों को प्रसन्न करने के लिए दी जाती थी, लेकिन अब बदलते समय के साथ यह प्रचलन बंद हुआ है। करीब 25 वर्ष से अब यहां कद्दू को बकरी का स्वरूप देकर उसकी बलि दी जाती है।उत्तराखंड के अन्य कई क्षेत्रों में भी इस तरह पांडव नृत्य के दौरान कद्दू को काटने अर्थात बलि देने का चलन है, जिसे उत्तराखंड की विभिन्न लोक बोलियों में भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित किया जाता है।
ग्रामीण रमेश सजवाण ने कहा कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत गए थे, तो उसके बाद वे उत्तराखंड पहुंचे। यहां उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सौंप दिए थे और स्वयं स्वर्ग की खोज में स्वर्गारोहण के लिए चले गए। तब से ही उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में पांडव लीला का आयोजन किया जाता है और इस दौरान उनके अस्त्र-शस्त्र की पूजा-अर्चना भी की जाती है।
ऐतिहासिक है गांव का इतिहास
बताते चलें कि यहां के ग्रामीण पहले नेलांग और जादूंग गांव में निवास करते थे और यहीं लोक पर्वों और अन्य अनुष्ठानों का आयोजन करते थे, लेकिन 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान नेलांग और जादूंग गांव के ग्रामीणों को विस्थापित कर बगोरी में बसा दिया गया। तब से जादूंग और नेलांग के ग्रामीणों का नया गांव बगोरी बन गया। बगोरी गांव ‘ग्रीन विलेज’ के नाम से भी मशहूर है।
शव के कान और नाक में रूई क्यों डालते हैं ? https://shininguttarakhandnews.com/amazing-traditions/