Haridwar Virendra Rawat : हरदा ने रिटायरमेंट से पहले ये क्या किया ?

देहरादून से अनीता आशीष तिवारी की रिपोर्ट 
 
Haridwar Virendra Rawat आखिरकार हरिद्वार लोकसभा सीट पर कांग्रेस ने ऐसे प्रत्याशी को उतारा जिसका विरोध जमीन पर था लेकिन उसकी आवाज शायद दिल्ली में पार्टी दफ्तर के अंदर बैठे नेताओं को नहीं सुनाई पड़ी। क्योंकि टिकट मिलते ही  जिस तरह से सोशल मीडिया से लेकर पार्टी कार्यालय तक विरोध के स्वर कहीं मुखर तो कहीं दबी जुबान सुनाई  दे रही है उनका इशारा इसी तरफ है कि हरिद्वार से भी अब कांग्रेस को जीत की उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए क्योंकि चुनाव पार्टी लड़ती है कार्यकर्ता मेहनत करते हैं और वरिष्ठ नेताओं की रणनीति विपक्षियों के लिए हार का सबब बनती है। जिसका हरिद्वार में समागम होना बेहद दूर की कौड़ी नज़र आ रही है। 
 

वीरेंद्र रावत को क्या जिता पाएंगे पिता हरीश रावत ? Haridwar Virendra Rawat

Haridwar Virendra Rawat
 
पहाड़ के बीते कई चुनावों में नतीजे हों या  जिस तरह से उत्तराखंड में कांग्रेस की खिसकती ज़मीन और उसके बड़े नेता हों , अंदरखाने जगजाहिर है कि किशोर से लेकर प्रीतम तक और गोदियाल से लेकर माहरा तक हरीश रावत का आंकड़ा कभी छत्तीस से चौंतीस नहीं हुआ है क्योंकि कभी सीधे तो कभी परदे के पीछे हरदा अपने सियासी दांव से कभी चित करते हैं तो कभी खुद ही बुरी हार के रूप में औंधे मुंह गिर जाते हैं। अब टिकट मिलने के बाद जब हमने कांग्रेस पार्टी के सीनियर लीडर से उनकी अपनी राय जाननी चाहिए तो पार्टी की वरिष्ठ नेताओं का कहना है की पुत्र मोह में हरदा ने अपने रिटायरमेंट के आखिरी लम्हे में न सिर्फ पार्टी को एक कमजोर कैंडिडेट देने पर मजबूर किया बल्कि अपनी बची खुची साख पर भी सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। 

 
हरदा त्रिवेंद्र में सम्भव था कडा मुक़ाबला 
तो चलिए अब यह समझ लेते हैं कि 2024 लोकसभा चुनाव हरिद्वार सीट पर क्या समीकरण बनता नजर आ रहा है। दरअसल इस त्रिकोणीय मुकाबले को अब जानकार आमने-सामने का बता रहे हैं तीसरा एंगल कांग्रेस का था जो उन हालातों में थोड़ा टक्कर देता जब त्रिवेंद्र रावत के सामने हरीश रावत खुद होते और दो पूर्व मुख्यमंत्री की यह लड़ाई बेहद कांटे की हो सकती थी।
हालांकि दोनों रावत के बीच चर्चित खानपुर विधायक उमेश कुमार को नजरअंदाज करना भी सही नहीं होगा क्योंकि निर्दलीय विधायक उमेश कुमार का भले ही भाजपा से मधुर संबंध नजर आता हो और समय-समय पर वह सीएम  पुष्कर सिंह धामी को अपना भाई और मित्र बताते  हों  लेकिन चुनाव तो वह निर्दलीय ही लड़ रहे हैं।  ऐसे में त्रिवेंद्र सिंह रावत हो या पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत जिनका  कास्टिंग प्रदेश में राष्ट्रपति शासन का सबब बना था। दो रावत के बीच एक पत्रकार का मजबूती से चुनाव लड़ना भी त्रिकोणीय मुकाबले को रोचक बना सकता था। लेकिन अब कम उम्र , अनुभवहीन और विरोध झेल रहे कांग्रेस उम्मीदवार के सामने अब अपनी ही पार्टी में भरोसा जीतने के साथ-साथ कार्यकर्ताओं को अपने साथ खड़ा करने की भी चुनौती है। 
 
हरिद्वार , हरदा और परिवारवाद का संगम 
 
आपको पता दे की बहुत पुरानी बात नहीं है जब पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत विधानसभा में भी पहुंचने से वंचित रह गए थे। हालांकि परिवारवाद पर घिरने वाली कांग्रेस ने हरिद्वार से हरीश रावत की बेटी अनुपम रावत को टिकट देकर विधायक बना दिया और अब उनके बेटे को लोकसभा का टिकट देकर उम्मीदवार बनाया है। यही नहीं हरिद्वार हरीश रावत के लिए छोड़ दिया गया। ऐसे में पार्टी संगठन के अंदर विरोध होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है लेकिन देखना यह होगा कि अपने सियासी कैरियर के अंतिम पायदान पर खड़े हरीश रावत क्या अपनी विदाई एक विवादित फैसले के साथ करेंगे ? जिसमें उनके साथ ना प्रदेश के नेता खड़े हैं , ना कार्यकर्ता है और ना ही चुनाव जिताऊ हवा है , हालांकि यह सियासत है जिसमें जनता ही जनार्दन है लेकिन सोशल मीडिया और डिजिटल भारत में अब मतदाता भी काफी जागरूक और चतुर हो गया है और वह वोट देने से पहले अपनी उम्मीदवार के बारे में पूरी मालूमात रखता है। ऐसे में क्या दिग्गज हरीश रावत अपने बेटे को रिटायरमेंट का तोहफा दे पाएंगे ? और क्या विरोधी खेमे के पार्टी नेता और हरिद्वार के नाराज कार्यकर्ता वीरेंद्र रावत के नाम और पहचान के साथ जोश में दिखेंगे यह आने वाले दिनों में उनके कार्यक्रमों और रैलियों से साफ हो जाएगा
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