Igas Bagwal उत्तराखंड में दिवाली केवल एक दिन का पर्व नहीं, बल्कि कई दिनों तक चलने वाला लोक उत्सव है. इगास-बग्वाल, बूढ़ी दिवाली, मंगसीर दिवाली और पारंपरिक दीपावली प्रदेश की सांस्कृतिक समृद्धि, सामाजिक एकता और लोक जीवन की परंपराओं को जीवंत रूप में दर्शाती हैं. घरों में दीप जलाने, पारंपरिक गीत गाने और ऐपण सजाने की परंपरा आज भी पहाड़ों में श्रद्धा और उत्साह के साथ निभाई जाती है.
जब पूरे देश में दीपावली की लौ धीमी पड़ जाती है, तब भी उत्तराखंड के पहाड़ों में दीयों की रौशनी टिमटिमाती रहती है. यहां दिवाली एक दिन नहीं, बल्कि कई दिनों तक चलने वाला लोक उत्सव है. पर्वों की यह श्रृंखला न सिर्फ धार्मिक आस्था, बल्कि लोक संस्कृति और सामुदायिक एकता का जीवंत प्रतीक बनकर प्रदेश की पहचान को उजागर करती है.

गढ़वाल में दीपावली के 11 दिन बाद मनाई जाने वाली इगास-बग्वाल खास महत्व रखती है. इस दिन घरों में दीप जलाए जाते हैं, भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा होती है. गांवों में “भैलो रे भैलो” के गीतों की गूंज रात भर सुनाई देती है. लोग पारंपरिक पोशाक पहनकर नाचते-गाते हैं और मिल-जुलकर इस पर्व को लोकनृत्य और उत्सव में बदल देते हैं.
बूढ़ी दिवाली राज्य के कई हिस्सों में पुराने कैलेंडर के अनुसार मनाई जाती है. यह त्योहार कृषि कार्यों से जुड़ा है, जहां लोग अपने खेत-खलिहानों की समृद्धि के लिए देवताओं को धन्यवाद देते हैं. घरों में पारंपरिक व्यंजन बनते हैं और लोग मशालों के साथ जुलूस निकालते हैं. यह परंपरा पुराने समय की स्मृति और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक मानी जाती है.

जौनसार-बावर क्षेत्र में मंगसीर माह में दिवाली मनाई जाती है. इस दिन लोग एक-दूसरे को अखरोट भेंट करते हैं, जो मित्रता और सौहार्द का प्रतीक है. गांवों में पारंपरिक गीत गाए जाते हैं और युवा-वरिष्ठ मिलकर उत्सव मनाते हैं. यह पर्व वहां की सामाजिक एकता और प्राचीन लोक जीवन की झलक प्रस्तुत करता है, जो आज भी उसी श्रद्धा से निभाई जाती है.
कुमाऊं क्षेत्र में दिवाली के अवसर पर घरों की चौखटों पर ऐपण से लाल सजावट की जाती है. यह पारंपरिक कला न सिर्फ सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि शुभता और देवी लक्ष्मी के स्वागत का भी माध्यम है. महिलाएं घरों को सजाती हैं और दीप जलाकर परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करती हैं. ऐपण आज भी कुमाऊं की सांस्कृतिक पहचान बना हुआ है.

उत्तराखंड की ये चार दिवालिया इगास-बग्वाल, बूढ़ी दिवाली, मंगसीर दिवाली और पारंपरिक दीपावली मिलकर प्रदेश की समृद्ध लोक संस्कृति को दर्शाती हैं. ये पर्व सिर्फ रोशनी का उत्सव नहीं, बल्कि लोक जीवन, कृषि, और सामाजिक एकता की गहराई को उजागर करते हैं. आधुनिकता के दौर में भी इन पर्वों का जीवित रहना इस बात का प्रमाण है कि पहाड़ों में संस्कृति आज भी सांस ले रही है.

