Turram Khan हमारी और आपकी ज़िन्दगी से एक नाम जुड़ा है जो अक्सर या तो हम दूसरों के लिए कहते हैं या कोई दूसरा हमारे लिए कहता है और वो नाम है तुर्रम खां का …. जी हां, वही नाम जिसका इस्तेमाल लोग बड़ी बहादुरी या थोड़ी शेखी बघारने के लिए करते हैं , लेकिन क्या आप जानते हैं कौन था तुर्रम खान ? इस नाम के पीछे की कहानी क्या है ? तो चलिए ये रिपोर्ट पढ़ कर जान लीजिये
मेरठ से बगावत की चिंगारी हैदराबाद पहुंची Turram Khan
ये कहानी है आजादी से करीब 100 साल पहले की। वह दौर था 1857 की क्रांति का। जगह थी हैदराबाद। यहां भी एक लड़ाई लड़ी गई, जिसके बारे में इतिहास में कम ही जिक्र मिलता है। पन्ना पलटने पर तुर्रे बाज़ खान का नाम कहीं-कहीं पता चलता है जिसे बेगम बाजार का एक साधारण सैनिक बताया गया है। ऐसे में आज की पीढ़ी के लिए यह जानना और भी जरूरी हो जाता है कि हैदराबाद का तुर्रेबाज खान कौन था ?
हैदराबाद में भी 1857 के विद्रोह की अपनी कहानी है। इस लड़ाई का नेतृत्व किया था तुर्रेबाज खान ने। उन्हें ही तुर्रम खां के नाम से जाना जाता है। उनके साथ थे मौलवी अलाउद्दीन। हैदराबाद में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत की ज्वाला जमींदार चीदा खान को आजाद कराने के लिए सुलगी, जिन्हें रेजीडेंसी के अंदर जेल में रखा गया था। मेरठ में बगावत की खबर हैदराबाद पहुंच चुकी थी, मस्जिदों, चर्चों, चौराहों हर जगहों पर पोस्टर लगाते हुए निजाम और आम जनता से अपील की गई कि वे सभी ब्रिटिश के खिलाफ खड़े हों। हालांकि निजाम अफजल उद-दौला और उसके मंत्री सलार जंग ने अंग्रेजों का साथ दिया।
लड़ाकों की बनाई फौज
अंग्रेजों के खिलाफ तुर्रेबाज और उनके साथियों के गुस्से की बड़ी वजह निजाम का ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ किया गया अलायंस था। निजाम की सेना और ईस्ट इंडिया कंपनी में मौजूद भारतीय सिपाहियों ने यूरोपीय अधिकारियों के खिलाफ बगावत कर दी। बगावत का झंडा बुलंद करते हुए तुर्रेबाज खान ने क्रांतिकारियों को एकजुट किया और करीब 5000 बहादुर लड़ाकों की फौज खड़ी कर दी। इसमें कई अरब और छात्र भी शामिल थे।
गद्दारी हो गई
इसी दौरान मौलवी अलाउद्दीन भी तुर्रेबाज के साथ हो गए। एक दिन शाम 6.30 बजते-बजते रेजीडेंसी को घेर लिया गया। पश्चिमी दीवार की तरफ दो बड़ों घरों में उन्होंने पोजीशन ले ली। दो साहूकारों अब्बन साहेब और जयगोपाल दास ने इस मिशन के लिए अपना घर तक खाली कर दिया। उधर, ब्रिटिश रेजीडेंसी की तरफ 5000 लोगों के कूच करने की खबर मंत्री मीर तुराब अली खान तक पहुंचा दी गई। उसने गद्दारी करते हुए रेजीडेंसी को अलर्ट कर दिया। घर से पोजीशन लिए हुए इन जांबाजों पर मद्रास हॉर्स आर्टिलरी के प्रशिक्षित सैनिक भारी पड़ रहे थे। पूरी रात फायरिंग चलती रही। सुबह 4 बजे तक क्रांतिकारियों ने मोर्चा संभाला और फिर शहीद हो गए। रेजीडेंसी से लगातार होती फायरिंग देख दो हवेलियों में छिपे लड़ाके भाग निकले। चारों तरफ शव ही शव बिखरे पड़े थे।
तुर्रम खां ने मुंह नहीं खोला
तुर्रेबाज यह सोचकर भाग निकले कि वह अपनी ताकत और बढ़ाकर वापस अटैक करेंगे। 22 जुलाई को तुराब अली खान ने अंग्रेजों को तुर्रेबाज के बारे में सूचना लीक कर दी। तुर्रेबाज को उनकी आंख के पास मौजूद निशान से पहचान लिया गया और जंगल में गिरफ्तार कर लिया गया। तुर्रेबाज बेहद पराक्रमी और तेजतर्रार थे। ‘काला पानी की सजा’ काटने के लिए उन्हें भेजा जाता, उससे पहले ही 18 जनवरी 1859 को वह जेल से भागने में कामयाब रहे। उन पर 5000 रुपये का इनाम घोषित हुआ। इतिहासकार मानते हैं कि वह धोखे से जंगल में पकड़ लिए गए और 24 जनवरी को उन्हें घेरकर गोली मार दी गई। उनके शव को शहर में घसीट कर घुमाया गया। कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है कि उनके शव से कपड़े हटाकर रेजीडेंसी के पास पेड़ से लटका दिया गया था।
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