Sarhul Festival 2025 झारखंड के गुमला जिले में जब चैत्र शुक्ल तृतीया की सुबह आती है, तो सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि पूरी प्रकृति का उत्सव जन्म लेता है—सरहुल महापर्व. यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि सूर्य और धरती के विवाह का आध्यात्मिक उत्सव है, जिसे आदिवासी समुदाय ‘खे-खे़ल बेंज्जा’ यानी धरती का विवाह कहता है. सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी उतनी ही सजीव और भावपूर्ण है, जितनी कभी रही होगी.
गुमला का सरहुल पर्व(Sarhul Festival 2025)
1 अप्रैल को गुमला में इस राज्य स्तरीय पर्व की तैयारी ज़ोरों पर है. गांव-गांव में सरना झंडे लहरा रहे हैं, पारंपरिक परिधान और आदिवासी वाद्ययंत्रों के साथ हजारों की संख्या में लोग नगर भ्रमण के लिए तैयार हैं. यह परंपरा 1961 से चली आ रही है, जब जुलूस में चंद सौ लोग होते थे. आज यह हजारों की सांस्कृतिक भागीदारी बन चुकी है.
उरांव/कुड़ुख साहित्य अकादमी के सचिव डॉ. तेतरू उरांव कहते हैं कि यह पर्व प्रकृति की संवेदनशीलता और मनुष्य के रिश्ते की मिसाल है. पेड़-पौधे, जीव-जंतु—हर एक को आदिवासी समुदाय जीवन का सहयोगी मानता है. सरहुल से पहले कोई फल नहीं खाया जाता, न कोई बीज बोया जाता है. पहले धरती मां और सूर्य पिता का विवाह होता है, फिर नई शुरुआत होती है.इस पर्व में साल वृक्ष के फूल को ‘चाला टोंक्का’ यानी सरना स्थल में चढ़ाया जाता है. पुरुष इन्हें अपने कान में और महिलाएं बालों में सजाती हैं. सरहुल(Sarhul Festival 2025) का अर्थ है “साल + शुरू”, यानी नए साल की शुरुआत, जो जीवन, उत्पादन और पुनर्जन्म का प्रतीक बनता है.
सरहुल का एक और रहस्य है—दो घड़ों में भरा पानी, जिसे एक दिन पहले लाया जाता है. इसका स्तर या फटना, वर्षा और समृद्धि के संकेत माने जाते हैं. यही घड़े भविष्य की संभावनाओं को बताने वाले प्राकृतिक बैरोमीटर बन जाते हैं. इस दिन कोई खेत नहीं जोता जाता, कोई निर्माण नहीं होता—बस धरती मां का श्रृंगार होता है. आदिवासी दर्शन के अनुसार, धरती को भी सम्मान और विश्राम चाहिए. सरहुल, यानी जन्म का पर्व, जीवन का सम्मान और प्रकृति से नाता जोड़ने का अवसर. गुमला का यह आयोजन हमें याद दिलाता है कि आधुनिकता की दौड़ में भी परंपरा की जड़ें सबसे गहरी होती हैं.